सर्वपल्ली राधाकृष्णन
|
|
प्रधान मंत्री
|
|
उपराष्ट्रपति
|
|
पूर्व अधिकारी
|
|
उत्तराधिकारी
|
|
राष्ट्रपति
|
|
पूर्व अधिकारी
|
कार्यालय आरम्भ
|
उत्तराधिकारी
|
|
|
|
जन्म
|
|
मृत्यु
|
|
राजनैतिक पार्टी
|
स्वतन्त्र
|
जीवन संगी
|
शिवकामु
|
संतान
|
5 पुत्रियाँ एवं 1
पुत्र
|
व्यवसाय
|
राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, शिक्षाविद, विचारक
|
धर्म
|
डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारत के प्रथम उप-राष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति रहे। उनका जन्म दक्षिण भारत के तिरुत्तनि स्थान में हुआ था जो चेन्नई से 64 किमी उत्तर-पूर्व में है। उनका जन्मदिन (5 सितम्बर) भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।
राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक
आस्थावान हिन्दू विचारक थे। उनके इन्हीं गुणों के कारण सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया था।
संक्षिप्त परिचयवृत्त
सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय सामाजिक संस्कृति से
ओतप्रोत एक प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक, उत्कृष्ट वक्ता और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। वे स्वतन्त्र भारत
के दूसरे राष्ट्रपति थे। इससे पूर्व वे उपराष्ट्रपति भी रहे। राजनीति में आने से पूर्व उन्होंने अपने जीवन के
महत्वपूर्ण 40 वर्ष शिक्षक के रूप में व्यतीत किये थे। उनमें एक आदर्श शिक्षक के
सारे गुण मौजूद थे। उन्होंने अपना जन्म दिन अपने व्यक्तिगत नाम से नहीं अपितु
सम्पूर्ण शिक्षक बिरादरी को सम्मानित किये जाने के उद्देश्य से शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की इच्छा व्यक्त की थी
जिसके परिणामस्वरूप आज भी सारे देश में उनका जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रति वर्ष
शिक्षक दिवस के नाम से ही मनाया जाता है।
डॉ० राधाकृष्णन समस्त विश्व को एक
शिक्षालय मानते थे। उनकी मान्यता थी कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का
सदुपयोग किया जाना सम्भव है। इसीलिए समस्त विश्व को एक इकाई समझकर ही शिक्षा का
प्रबन्धन किया जाना चाहिये। एक बार ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में भाषण
देते हुए उन्होंने कहा था कि मानव की जाति एक होनी चाहिये। मानव इतिहास का
सम्पूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। यह तभी सम्भव है जब समस्त देशों की
नीतियों का आधार विश्व-शान्ति की स्थापना का प्रयत्न करना हो। वे अपनी
बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हँसाने व गुदगुदाने वाली कहानियों
से अपने छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे
कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं
उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता
से सरल और रोचक बना देते थे।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली
राधाकृष्णन की जयन्ती प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनायी जाती है। इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता
का ह्रास होता जा रहा है और गुरु-शिष्य सम्बन्धों की पवित्रता को ग्रहण लगता जा
रहा है, उनका पुण्य स्मरण फिर एक नयी चेतना पैदा कर सकता है। सन् 1962
में जब वे राष्ट्रपति बने थे, तब कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गये और उन्होँने उनसे निवेदन
किया कि वे उनके जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं। उन्होंने
कहा- "मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं अपने
को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।" तबसे आज तक 5 सितम्बर सारे देश में उनका जन्म
दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन
ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के
धनी थे। यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान,
शिक्षक,
वक्ता,
प्रशासक,
राजनयिक,
देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के
उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी वे शिक्षा के क्षेत्र में सतत
योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाये तो समाज की
अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है।
डॉ० राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र
जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग
में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी
लोकतान्त्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है। ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक
बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरन्तर सीखते
रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों
प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ
परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं।
वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के
प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक
अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षोँ तक अध्यापन किया।
एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं
लोगों को बनाया जाना चाहिये जो सबसे अधिक बुद्धिमान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी
तरह अध्यापन करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिये अपितु उसे अपने छात्रों का
स्नेह और आदर भी अर्जित करना चाहिये। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना
पड़ता है। उनकी मृत्यु 17 अप्रैल 1975
को हुई थी ।
जन्म एवं परिवार
डॉ० राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो तत्कालीन मद्रास से लगभग 64 कि॰ मी॰ की दूरी पर स्थित है, 5 सितम्बर 1888 को हुआ था। जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया वह एक
ब्राह्मण परिवार था। उनका जन्म स्थान भी एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात
रहा है। राधाकृष्णन के पुरखे पहले कभी 'सर्वपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने
तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के
साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिये। इसी कारण उनके परिजन अपने
नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे।
डॉ० राधाकृष्णन एक ग़रीब किन्तु विद्वान
ब्राह्मण की सन्तान थे। उनके पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरास्वामी'
और माता का नाम 'सीताम्मा' था। उनके पिता राजस्व
विभाग में काम करते थे। उन पर बहुत बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था।
वीरास्वामी के पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इन सन्ततियों में
दूसरा था। उनके पिता काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण
बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं हुआ।
विद्यार्थी
जीवन
राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। उन्होंने प्रथम आठ
वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे। यद्यपि उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें
धार्मिक भावनाएँ भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था
लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिये भेजा। फिर
अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा
प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे।
इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिये। इसके लिये उन्हें
विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में उन्होंने वीर सावरकर और स्वामी
विवेकानन्द का भी अध्ययन किया। उन्होंने 1902 में
मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके
बाद उन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्हें
मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च
प्राप्तांकों के कारण मिली। इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने उन्हें
छात्रवृत्ति भी दी। दर्शनशास्त्र में एम०ए० करने के पश्चात् 1916 में वे मद्रास रेजीडेंसी
कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। बाद में उसी कॉलेज में
वे प्राध्यापक भी रहे। डॉ० राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व
को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा
की गयी।
दाम्पत्य
जीवन
उस समय मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में
कम उम्र में ही शादी सम्पन्न हो जाती थी और राधाकृष्णन भी उसके अपवाद नहीं रहे।
1903 में 16 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह दूर के रिश्ते की बहन 'सिवाकामू' के साथ सम्पन्न हो
गया। उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी। अतः तीन वर्ष बाद ही उनकी
पत्नी ने उनके साथ रहना आरम्भ किया। यद्यपि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप
से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती
थीं। 1908 में राधाकृष्णन दम्पति को सन्तान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई।
1908 में ही उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन
शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद ही 1909 में उन्होंने
कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा।
उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिये बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम
भी करते रहे। 1908 में उन्होंने एम० ए० की उपाधि प्राप्त करने के लिये एक शोध लेख
भी लिखा। इस समय उनकी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। इससे शास्त्रों के प्रति उनकी
ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही उन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर
लिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।
हिन्दू
शास्त्रों का गहरा अध्ययन
शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक व्यक्ति पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान
की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी
जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों के भीतर काफी गहराई तक स्थापित किया जाता था। यही
कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च
गुण समाहित हो गये। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं
के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी
आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉ० राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दू
शास्त्रों का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉ० राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे
कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में
जड़ता है? तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास
करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा
अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते
थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी
समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं।
इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा सन्देश देती है।
भारतीय
संस्कृति
डॉ० राधाकृष्णन ने यह भली भाँति जान
लिया था कि जीवन बहुत ही छोटा है परन्तु इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण
व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिये। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो अमीर ग़रीब सभी को
अपना ग्रास बनाती है तथा किसी प्रकार का वर्ग भेद नहीं करती। सच्चा ज्ञान वही है
जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण सन्तोषवृत्ति का जीवन
अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है,
जिनमें असन्तोष का निवास है। एक शान्त
मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से; जो संसदों एवं दरबारों में सुनायी देती हैं। वस्तुत: इसी कारण
डॉ० राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वे
मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया
है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च
संस्कार देखना चाहती हैं। इसी कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं
मुसीबत में फँसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन
ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और
सभी धर्मों के लिये समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस
प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक
हो गये।
जीवन
दर्शन
डॉ० राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक
विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का
सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबन्धन करना
चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉ० सर्वपल्ली
राधाकृष्णन ने कहा था- "मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण
लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति तभी सम्भव है जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व
में शान्ति की स्थापना का प्रयत्न हो।" डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से
परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से
छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने
की प्रेरणा वह अपने छात्रों को भी देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन
अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना
देते थे।
अध्यवसायी
जीवन
1909 में 21 वर्ष की उम्र में डॉ०
राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र
पढ़ाना प्रारम्भ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल
आजीविका प्राप्त हुई थी। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया अपितु
स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों
व्याख्याता के लिये यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी
प्राप्त करे। इसी कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में
लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। दर्शन शास्त्र विभाग के
तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से काफ़ी अभिभूत हुए।
उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर
दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शन शास्त्र की
कक्षाओं में पढ़ा दें। तब राधाकृष्ण ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली
व्याख्यान दिये, जिनसे वे शिक्षार्थी भी चकित रह गये। इसका कारण यह था कि उनकी
विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में दृष्टिकोण स्पष्ट था और
व्याख्यान देते समय उन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था। 1912 में डॉ०
सर्वपल्ली राधाकृष्णन की "मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व" शीर्षक से एक लघु
पुस्तिका भी प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिये गये उनके व्याख्यानों का संग्रह था।
इस पुस्तिका के द्वारा उनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि "प्रत्येक पद की
व्याख्या करने के लिये उनके पास शब्दों का अतुल भण्डार तो है ही, उनकी स्मरण शक्ति भी
अत्यन्त विलक्षण है।"
मानद
उपाधियाँ
जब डॉ० राधाकृष्णन यूरोप एवं अमेरिका प्रवास से पुनः भारत लौटे तो यहाँ के विभिन्न विश्वविद्यालयों
ने उन्हें मानद उपाधियाँ प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का सम्मान किया। 1928 की शीत
ऋतु में इनकी प्रथम मुलाक़ात पण्डित जवाहर लाल नेहरू से उस समय हुई,
जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक
अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिये कलकत्ता आए हुए थे। यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा
के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, तथापि उन्होंने इस
वर्जना की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। 1929 में इन्हें व्याख्यान देने हेतु 'मानचेस्टर
विश्वविद्यालय' द्वारा आमन्त्रित किया गया। इन्होंने मानचेस्टर एवं लन्दन में कई व्याख्यान दिये। इनकी शिक्षा सम्बन्धी उपलब्धियों के
दायरे में निम्नवत संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है-
- सन् 1931 से 1936 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
- ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।
- कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
- सन् 1939 से 1948 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
- 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
- 1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
राजनीतिक
जीवन
यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा
थी कि स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे
1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी
नियुक्त किये गये। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन
गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जायें। जवाहरलाल
नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 - 15
अगस्त, 1947 की रात्रि को उस समय किया जाये जब संविधान सभा का
ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वे अपना सम्बोधन
रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। क्योंकि उसके पश्चात ही नेहरू जी के नेतृत्व
में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।
राजनयिक
कार्य
सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा ही किया और
ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पण्डित नेहरू और राधाकृष्णन के
अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि
वह मातृभूमि की सेवा के लिये विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक
कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी
पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया।
पण्डित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक
दर्शनशास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह सन्देह था
कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं।
लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त
भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वे एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो
मन्त्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वे उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद
उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब भी वे नियमों के
दायरों में नहीं बँधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व
ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के
पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय
एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।
उपराष्ट्रपति
1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किये
गये। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु
राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के
लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया।
उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला।
सन 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाये गये। बाद में पण्डित नेहरू का यह चयन
भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने
सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य
व्यवहार के लिये काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं।
शिक्षक
दिवस
हमारे देश के द्वितीय किंतु अद्वितीय राष्ट्रपति डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन (5 सितम्बर) को
प्रतिवर्ष 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है।
भारत
रत्न
यद्यपि उन्हें 1931 में ब्रिटिश
साम्राज्य द्वारा "सर" की उपाधि प्रदान की गयी थी
लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उसका औचित्य डॉ० राधाकृष्णन के लिये समाप्त
हो चुका था। जब वे उपराष्ट्रपति बन गये तो स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ०
राजेंद्र प्रसाद जी ने 1954 में उन्हें उनकी महान दार्शनिक व
शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।
No comments:
Post a Comment